शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

दुनिया मानती है अनीश के शिल्प का लोहा

भारतीय मूल के कलाकार अनीश कपूर के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें ब्रिटिश सरकार ने लंदन के ओलंपिक पार्क में 115 मीटर ऊंचा ऎसा शिल्प बनाने की जिम्मेदारी दी है, जो भविष्य में अंग्रेजी शान का किस्सा बनेगा।

ब्रिटेन इन दिनों अगले साल होने वाले ओलंपिक 2012 की तैयारियों में है व्यस्त। भले किसी जमाने में अंग्रेजों के राज में सूरज न डूबता हो, लेकिन अब दुनिया में उसका जलवा इतिहास बन चुका है। अंग्रेज शानो-शौकत दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए लंदन की ओलंपिक साइट पर ऑर्बिट बनाने का काम उन्होंने सौंपा है भारतीय मूल के अनीश कपूर को। कपूर लंदन के ओलंपिक पार्क में इन दिनों 115 मीटर (377 फुट) ऊंचा एक ऎसा शिल्प बनाने में लगे हैं, जो पूरी दुनिया में अंग्रेजी शान के किस्सा बन जाए।

यह शिल्प न्यूयार्क के मशहूर स्टेच्चू ऑफ लिबर्टी से भी 22 मीटर ऊंचा होगा। 1.91 करोड़ पाउंड के बजट से बनने वाले इस ऑर्बिट में ओलंपिक के पांच छल्ले बने होंगे। इस पर चढ़कर पूरे लंदन का विहंगम नजारा देखा जा सकेगा। वैसे इस प्रोजेक्ट के लिए प्रस्तावित बजट में से 1.6 करोड़ पौंड की रकम इसके प्रायोजक भारतीय मूल के ही आर्सेलर मित्तल स्टील कंपनी के सीईओ लक्ष्मीनिवास मित्तल देंगे, जबकि बाकी रकम का इंतजाम लंदन डेवलपमेंट एजेंसी करेगी। अंग्रेजों का अनीश कपूर पर यह भरोसा बेवजह नहीं है। पूरी दुनिया उनकी प्रतिभा का लोहा मानती है।


बचपन भारत में, कर्मस्थली ब्रिटेन

12 मार्च 1954 को मुंबई में जन्मे कपूर वर्ष 70 के दशक की शुरूआत से ही लंदन में रहते हैं। उनकी ट्रेनिंग भी वहीं के होर्नेसी कॉलेज ऑफ आर्ट और चेलसा स्कूल ऑफ आर्ट एंड डिजाइन में हुई है। अनीश का बचपन मुंबई में ही बीता। उनकी मां हिंदुस्तानी पिता और इराकी मां की संतान थीं। अनीश के नाना पुणे में स्थित यहूदिया के एक उपासना स्थल में गायक थे। उन दिनों मुंबई जेविश मूल के लोगों की काफी तादाद थी। उन्हें बगदादी जेविश कहा जाता था। उनके पिता पंजाबी परिवार से थे और भारतीय नेवी में हाइड्रोग्राफर थे।

शुरूआती कुछ साल मुंबई में गुजारने के बाद अनीश देहरादून चले गए। वहां उन्होंने दून स्कूल में पढ़ाई की। 1971-73 में वे पढ़ाई के लिए अपने भाई के साथ इजराइल भेज दिए गए। वहां से उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और इसके बाद ब्रिटेन के होर्नेसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वहां उन्होंने कलाकार पॉल नियागु को अपना आदर्श मान लिया। 1979 में वॉल्वरहेम्पटन पॉलिटेक्निक में पढ़ाया और 1982 में लीवरपूल की वाल्कर आर्ट गैलरी में कलाकार बन गए।


नागरिकता ब्रिटेन की, दिल इंडियन

अनीश के बाद ब्रिटिश नागरिकता थी, इसलिए तमाम मंचों पर उन्होंने ब्रिटेन का ही प्रतिनिधित्व किया। उन्हें इतने पुरस्कार मिले हैं कि उन्हें ठीक से याद भी नहीं। 1990 में नेनिस बाइनेल में उन्हें प्रीमियो डयूमिला पुरस्कार मिला। 1991 में उन्हें टर्नर प्राइज मिला। 2002 में उन्हें टेट मॉर्डर्न स्थित टरबाइन हॉल के लिए यूनिलीवर कमीशन मिला। क्लाउड गेट, शिकागो का मिलेनियम पार्क, न्यूयार्क के रॉकफेलर सेंटर में स्काई मिरर जैसे तमाम शिल्प उनकी प्रतिभा का किस्सा बताने के लिए काफी हैं।


अनूठे शिल्प पर दुनिया कायल

कपूर 1980 के दशक में सबसे पहले अपने ज्यामितीय शिल्प के लिए पहचाने गए थे। बाद में उन्होंने ग्रेनाइट, मार्बल, लाइमस्टोन, पिगमेंट, प्लास्टर आदि का प्रयोग शुरू किया। शुरूआती दौर में वे अपने शिल्प के कव्र्स और तीखे रंगों के लिए पहचाने जाते थे। बाद में उन्होंने पत्थरों पर प्रयोग शुरू किए। 1995 से उन्होंने स्टेनलेस स्टील पर काम शुरू किया। इस दौरान इंग्लैंड के गेट्सहेड स्थित बाल्टिक फ्लोर मिल्स में 35 मीटर ऊंचा तारातंत्र तैयार किया। इसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। ब्रिटेन और अमरीका ही नहीं, दुनियाभर में उन्होंने शिल्प के ऎसे नमूने तैयार किए कि देखने वाले उनकी प्रतिभा के कायल हो गए। सितंबर 2009 में वे ऎसे पहले जीवित कलाकार बने, जिनकी एकल प्रदर्शनी रॉयल एकेडमी ऑफ आट्र्स में लगाई गई।


भारतीय संस्कारों से लबरेज

प्रतिभा के सहारे बुलंदियों तक पहुंचे कपूर इतने विनम्र हैं कि उनसे मिलने वाले हैरान हुए बिना नहीं रहते। उनकी बातचीत में 'यदि आप पसंद करें' और 'अगर मैं और स्पष्ट कहूं तो' जैसे वाक्यों की भरमार होती है। जिन लोगों ने कलाकारों के मूड के किस्से सुने हैं, वे भी कपूर से मिलने के बाद अपनी राय बदलने पर मजबूर हो जाते हैं। आखिर हो भी क्यों न, भारतीय संस्कारों का लोहा तो दुनिया मानती ही है। भारतीय दुनिया में जहां भी रहें, अपने संस्कार नहीं भूलते। हां, कपूर जहां काम करते हैं, वहां के फोटो लेने की सख्त मनाही है। स्टूडियो में आने वाले लोगों को कैमरा भीतर ले जाने की इजाजत नहीं है।

क्षितिज भारद्वाज

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