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रविवार, 18 मार्च 2018

''हरी नाम सदा सुखकारी''


 भगवन श्री कृष्णा के नामो और उनके नाम स्मरण के महत्त्व के बारे में हमारे इस आर्टिकल को पूरा पढ़े जिसके पड़ने मात्र से आपको असीम सुख की प्राप्ति होगी और भगवन का नाम स्मरण भी होगा जिससे आपके दुःख  नष्ट होंगे और निश्चित ही पुण्य का उदय होगा, ईश्वर आपका कल्याण करे 

गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे,
शम्भो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव,
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति।।
स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं–’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव–इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’
यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?

भगवन्नाम


भगवान का नाम उन परमात्मा का वाचक है जो अखिल ब्रह्माण्ड के नायक, परिचालक, उत्पादक और संहारक हैं। ‘भगवान’ शब्द समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य का संकेत करता है। अत: भगवान में अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों का ज्ञान, उनके अनन्तानन्त कर्मों का ज्ञान, अनन्तानन्त कर्मों के फलों का ज्ञान और उन कर्मफलों को देने की सामर्थ्य है। वे भगवान एक ही हैं; किन्तु उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, प्रजापति, इन्द्र, वरुण, अग्नि, राम, कृष्ण, गोविन्द, वासुदेव, नारायण आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। नाम-संकीर्तन उस परमपिता के प्रति अभिवादन है, उसके अमित उपकारों की स्वीकारोक्ति है और उसके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है। यह दीनता का प्रदर्शन है, गरीब की गुहार है और शरणागतभाव की अभिव्यक्ति है। यह समय का सदुपयोग है जिसमें भक्त स्वयं को समर्पण कर अपने अहंकार को नकारता है। भगवन्नाम शब्द में विलक्षण शक्ति है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह भगवन्नाम उच्चारण करने पर तीक्ष्ण तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ वह सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य भगवत्कृपा का भाजन बनता है और उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

कलजुग केवल नाम अधारा

गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है–’कलजुग केवल नाम अधारा’
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना।।
‘सत्ययुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ के द्वारा और द्वापर में परिचर्या के द्वारा जो परम वस्तु प्राप्त होती है, कलियुग में केवल हरिनाम-संकीर्तन से उसकी प्राप्ति होती है।’ विष्णुपुराण के अनुसार–’कलौ संकीर्त्य केशवम्।’ कलियुग में भगवान श्रीकृष्ण के कीर्तन को प्रधानता दी गई है। कलियुग में तो संसार-सागर से पार उतरने के लिए एकमात्र भगवान का नाम ही सुदृढ़ नौका है। लगन हो, रटन हो और नाम पर विश्वास हो तो इस नाम-जप के प्रभाव से सब कुछ हो सकता है।

भगवान के नामोच्चारण की महिमा

भगवान के नाम की विलक्षण महिमा है। इस भगवन्नाम से जल में डूबता हुआ गजराज समस्त शोक से छूट गया, द्रौपदी का वस्त्र अनन्त हो गया, नरसीमेहता के सम्पूर्ण कार्य बिना किसी उद्योग के सिद्ध हो गए, नाम के स्पर्श से सेतुबंधन के समय पत्थर भी तैर गए, मीरा के लिए विष भी अमृत समान हो गया, अवढरदानी शिवजी भी नाम के प्रताप से भयानक विषपान कर गए और नीलकण्ठ बन गए और संसार को भस्मीभूत होने से बचा लिया, व्याध भी ‘राम’ का उल्टा ‘मरा’ जपकर वाल्मीकि बन गए, भक्त प्रह्लाद भी हिरण्यकशिपु द्वारा दी गई समस्त विपत्तियों से छूट गए और धधकती हुई ज्वाला भी उन्हें  भस्म नहीं कर सकी, बालक ध्रुव को अविचल पदवी प्राप्त हुई, नामजप के प्रभाव से ही हनुमानजी ने श्रीराम को अपना ऋणी बना लिया, अंतकाल में पुत्र का नाम नारायण लेने से अजामिल को भगवत्-पद की प्राप्ति हुई, नाम के प्रभाव से ही असंख्य साधकों को चमत्कारमयी सिद्धियां प्राप्त हुईं–ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भगवान के नाम की महिमा को दर्शाते हैं।
नामोच्चार संसार के रोगों के निवारण की महान औषधि है। जैसे जलती हुई अग्नि को शान्त करने में जल सर्वोपरि साधन है, घोर अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य ही समर्थ है, वैसे दम्भ, कपट, मद, मत्सर आदि अनन्त दोषों को नष्ट करने के लिए श्रीभगवन्नाम ही सर्वसमर्थ है। बारम्बार नामोच्चारण करने से जिह्वा पवित्र हो जाती है। मन को अत्यन्त प्रसन्नता होती है। समस्त इन्द्रियों को सच्चिदानंदमय परम सुख प्राप्त होता है। समस्त शोक-संताप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार–’भगवान का नाम प्रेम से, बिना प्रेम से, किसी संकेत के रूप में, हंसी-मजाक करते हुए, किसी डांट-फटकार लगाने में अथवा अपमान के रूप में भी ग्रहण करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।’
रामचरितमानस में कहा गया है–’भाव कुभाव अनख आलसहुँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ।।’ भगवान का नाम लेकर जो जम्हाई भी लेता है उसके समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। यथा–’राम राम कहि जै जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।
भगवन्नाम से तो बड़े-बड़े अमंगल ही क्या, भाग्य में लिखे हुए अनिष्टकारी योग भी मिट जाते हैं। तीर्थ में वास, लक्ष-लक्ष गोदान अथवा कोटि जन्म के सुकृत–कुछ भी भगवन्नाम के तुल्य नहीं है। नाम की सामर्थ्य असीम है, अचिन्तनीय है।
भक्त नामदेव का कहना है कि–’सोने के पर्वत, हाथी और घोड़े का दान तथा करोड़ों गायों का दान नाम के समान नहीं। ऐसा नाम अपनी जीभ पर रखो, जिससे जरा और मृत्यु पुन: न हो।’

प्रश्न यह उठता है कि नाम में इतनी शक्ति आयी कहां से? 


भगवान मनुष्यों पर अनुग्रह करने के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं। अपने परिकरों के साथ आते हैं और कार्य हो जाने पर अपने गणों के साथ नित्यधाम को लौट जाते हैं। दु:खी जीवों के लिए वे छोड़ जाते हैं अपना अभय और अमृतप्रद नाम-चिन्तामणि। केवल यही नहीं, नाम के भीतर वे अपनी भारी शक्ति का आधान कर जाते हैं। नाम की शक्ति तो थी ही, प्रभु की शक्ति को पाकर नाम नामी (भगवान) की अपेक्षा महान बन जाता है। श्रीरामचन्द्रजी ने एक पाषाणमयी अहल्या का उद्धार किया था पर नाम युग-युग में शत-शत अहल्याओं का उद्धार करता है। अब इतनी अहल्या हैं कहां? तो इसका उत्तर है–’हल्या’ का अर्थ है कृषियोग्य; अहल्या का अर्थ है कृषि के अयोग्य अर्थात् पाषाण। सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का हृदय पाषाण होता जा रहा है। भगवान तो प्रकट हैं नहीं जो उनका उद्धार करें। परन्तु उनका नाम तो है ही। भगवान तो उद्धार करके चले गए, नाम इस समय महान उद्धारलीला करके (अनेकों पाषाणहृदयों को द्रवित करके) शत-शत जीवों का उद्धार कर रहा है।

भगवान श्रीकृष्ण के नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ सुन्दर प्रसंग

प्राचीन कथाओं पर विश्वास करना यद्यपि कठिन होता है परन्तु भक्ति हृदय से (श्रद्धा और विश्वास से) की जाती है, तर्क से नहीं। प्रस्तुत हैं भगवन्नाम की महिमा से सम्बन्धित कुछ प्रसंग–
एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्त श्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें।’ भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और कहा–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों।’ भगवान शंकर पार्वतीजी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए। पार्वतीजी ने पूछा–’हम कहां चल रहे हैं?’ शंकरजी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे। जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है।’ किन्तु हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं। पार्वतीजी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी पर शंकरजी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तत्काल ही श्रीकृष्ण, उद्धवजी, रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी के साथ पधारे और शंकर-पार्वतीजी को प्रणाम कर आने का कारण पूछा।
शंकरजी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वतीजी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं।’ ‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए। बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया तब शंकरजी ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। ब्रह्माजी के आने पर शंकरजी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा। पर ब्रह्माजी के अंदर जाने पर भी बहुत देर तक कोई संदेश नहीं आया। शंकरजी ने नारदजी का स्मरण किया। शंकरजी की आज्ञा से नारदजी अंदर गए। किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी। पार्वतीजी से रहा नहीं गया। वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है। पता नहीं वहां क्या हो रहा है? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं।’ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे।
उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्राजी उन्हें पंखा झल रही थीं। अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामाजी पंखा झलने लगीं। उद्धवजी भी पंखा झलने लगे। रुक्मिणीजी अर्जुन के पैर दबाने लगीं। तभी उद्धवजी व सत्यभामाजी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है?’ तब उद्धवजी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है।’ तभी रुक्मिणीजी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है।’
अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी।

उसी समय ब्रह्माजी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य, कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणीजी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं, ब्रह्माजी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे। इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे। भगवान शंकर व माता पार्वती भी इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए। शंकरजी का डमरू भी डिमडिम निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे। पार्वतीजी भी स्वर मिलाकर हरिगुणगान करने लगीं।
इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया।
जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से  कृष्ण नाम का उच्चारण होता है वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं। नाम और कृष्ण अभिन्न हैं।
कौरवों की सभा में जब द्रौपदी निरावरण हुई तब द्रौपदी ने बारम्बार ‘गोविन्द’ और ‘कृष्ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्तिकाल में अभय देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का मन-ही-मन चिन्तन किया। वह बोली–
गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।
कौरवै: परिभूतां मां किं न जानासि केशव।।
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।।
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्।।
अर्थात्–’ हे गोविन्द ! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण ! हे गोपियों के प्राणबल्लभ ! हे केशव ! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ ! हे लक्ष्मीनाथ ! हे व्रजनाथ ! हे संकट-नाशन जनार्दन ! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ; मेरा उद्धार कीजिए ! हे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगिन् ! विश्वात्मन् ! विश्वभावन ! गोविन्द ! कौरवों के बीच कष्ट में पड़ी हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए।’
द्रौपदी की करुण प्रार्थना सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद् हो गए तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित होकर पैदल ही दौड़ चले। धर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने वहां पधारकर अव्यक्तरूप से द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश किया और भांति-भांति की सुन्दर साड़ी से द्रौपदी को ढक दिया। इस तरह वस्त्र के रूप में भगवान वहां तुरंत आ पहुँचे।
भगवान के नाम की महिमा दर्शाने वाली एक और कथा जो कि बताती है कि भगवान्नाम के फलस्वरूप ही श्रीराधाजी का प्राकट्य हुआ–
ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड के छठे अध्याय में कात्यायनीदेवी द्वारा श्रीबृषभानु को वर देने की कथा है–
बृषभानु संतानहीन होने के कारण बड़ा दु:खी जीवन बिता रहे थे। तब उनकी पत्नी ने उनसे मां कात्यायनी देवी की आराधना करने के लिए कहा। श्रीबृषभानुजी के कठोर तपस्या करने पर वाग्देवी (सरस्वतीजी) ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें आदेश दिया–
हरिनाम विना वत्स वर्णशुद्धिर्न जायते।
‘वत्स ! हरिनाम के बिना व्रण-शुद्धि नहीं होगी। अतएव राजन् ! हरिनाम का कीर्तन ही कल्याणकारी है। तुम पवित्र हरिनामों को ही क्रम से ग्रहण करो।’
उन्हीं के निर्देश से क्रतुमुनि के द्वारा बृषभानु को हरिनाम प्राप्त हुआ। वह नाम इस प्रकार था–
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीबृषभानुजी की तपस्या और इस नाम-जप से प्रसन्न होकर कात्यायनी देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं और उन्होंने श्रीबृषभानुजी से वर मांगने के लिए कहा। यद्यपि श्रीबृषभानुजी ने संतान-प्राप्ति की कामना से साधना आरम्भ की थी तथापि वे कात्यायनी देवी से बोले–’आपके दर्शन से ही मेरे सारे अभीष्ट पूर्ण हो गए।’ पर कात्यायनी देवी ने उनके पूर्ण अभीष्ट और कामना की पूर्ति के लिए उनको एक ज्योतिर्मय डिम्ब दिया। उसी से श्रीराधा का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार ‘नाम’ के फलस्वरूप श्रीबृषभानुजी ने संतान प्राप्त की।
पावन ब्रजभूमि में आज भी चारों और ढोलक, मंजीरों की गूंज पर नाम-संकीर्तन की स्वरलहरी सुनाई देती है। इसी स्वरलहरी के सांनिध्य और स्पर्श से वृन्दावन के वृक्षों और लताओं में आज भी ‘राधेकृष्ण’की ध्वनि होती रहती है। भक्त शिरोमणि तुलसीदासजी ने अपने ब्रजप्रवास मे इसकी अनुभूति करते हुए कहा था–
बृन्दावन के वृक्ष को, मर्म न जाने कोय।
डार-डार अरु पात-पात में राधे राधे होय।।
भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है–सब अभिलाषित फलों को देने वाला है। यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में कहा है–
सांसारिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार के लाभ देने में श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण के तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप–तीनों एक हैं; एक ही सत्ता की इन तीन दशाओं में कोई भेद नहीं है। तीनों चिदानन्दरूप हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के कुछ प्रचलित नाम व उनका भावार्थ

भगवान के नाम अनन्त हैं, उनकी गणना कर पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। यहां कुछ थोड़े से प्रचलित नामों का अर्थ दिया जा रहा है–
  • कृष्ण’कृष्ण’ शब्द की महाभारत में व्याख्या विलक्षण है। भगवान ने इस सम्बन्ध में स्वयं कहा है–’मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण है–काला है, इसीलिए मैं ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता हूँ।
  • परमात्मा–सृष्टि का जो मूल कारण है; जिसके संसर्ग के बिना प्रकृति में सृजन-क्रिया सम्भव नहीं, उस सर्वव्यापक चित् तत्त्व को परमात्मा कहते हैं।
  • हरि–इस प्रसिद्ध नाम की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है–(१) जो यज्ञ में हवि के भाग को ग्रहण करते हैं वे प्रभु यज्ञभोक्ता होने से हरि कहलाए। (२) हरिन्मणि (नीलमणि) के समान उनका रूप अत्यन्त सुन्दर एवं रमणीय है।
  • अच्युत–जिनके स्वरूप, शक्ति, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, ज्ञानादि का कभी किसी काल में, किसी भी कारण से ह्रास नहीं होता, वे भगवान अच्युत कहे जाते हैं।
  • भगवान–ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य–भगवान इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्णतया युक्त हैं।
  • माधव–मायापति अथवा लक्ष्मीपति होने से भगवान का नाम माधव है।
  • गोविन्द–भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज धारण कर इन्द्र के कोप से गोप-गोपी और गायों की रक्षा की। अभिमान-भंग होने पर इन्द्र और कामधेनु ने  उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से विभूषित किया। गौओं ने अपने दूध से भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक कर उन्हें गोविन्द–गौओं का इन्द्र बनाया।
  • गोपाल–गायों का पालन करने वाले।
  • हृषीकेश–हृषीक कहते हैं इन्द्रियों को। जो मन सहित समस्त इन्द्रियों का स्वामी है, वह हृषीकेश है।
  • पृश्निगर्भ–पृश्निगर्भ के अर्थ हैं–अन्न, वेद, जल तथा अमृत। इनमें भगवान निवास करते हैं; अत: पृश्निगर्भ कहलाते हैं।
  • वासुदेव–जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से समस्त जगत् को आच्छादित करता है, उसी प्रकार इस विश्व को आच्छादित करने के कारण भगवान ‘वासुदेव’ कहलाते हैं।
  • केशव–केशव कहलाने के तीन कारण हैं–(१) अत्यन्त सुन्दर केशों से सम्पन्न होने से ‘केशव’ हैं। (२) केशी के वध के कारण ‘केशव’ हैं। (३) ब्रह्मा, विष्णु और शिव जिसके वश में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करते हैं, वह परमात्मा है केशव।
  • ईश्वर–उत्पत्ति, पालन, प्रलय में सब प्रकार से समर्थ होने के कारण ईश्वर कहलाते हैं।
  • पद्मनाभ–जिसकी नाभि में जगतकारणरूप पद्म स्थित है, वे पद्मनाभ कहे जाते हैं।
  • पद्मनेत्र–कमल के समान नेत्र वाले।
  • जनार्दन–जो प्रलयकाल में सबका नाश कर देते हैं अथवा जो अवतार लेकर दुष्टजनों का दमन करते हैं और भक्तलोग जिनकी प्रार्थना करते हैं; वे जनार्दन कहे जाते हैं।
  • नारायण–’नार’ कहते हैं–जल को, ज्ञान को और नर को। ज्ञान के द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाय, वे नारायण हैं। और नर के सखा हैं और जल में घर बनाकर (क्षीरसागर में) रहते हैं।
  • मुकुन्द–मुक्तिदाता होने से भगवान को मुकुन्द कहा जाता है
  • प्रभु–सर्वसमर्थ।
  • मधसूदन–प्रलय-समुद्र में मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
  • मुरारी–मुर दैत्य के नाशक।
  • दयानिधि–दया के समुद्र।
  • कालकाल–काल के भी महाकाल।
  • नवनीतहर–माखन का हरण करने वाले।
  • बालवृन्दी–गोप-बालकों के समुदाय को साथ रखने वाले।
  • मर्कवृन्दी–वानरों के झुंड के साथ खेलने वाले।
  • यशोदातर्जित–यशोदा माता की डांट सहने वाले।
  • दामोदर–मैया द्वारा रस्सी से कमर में बांधे जाने वाले।
  • भक्तवत्सल–भक्तों से प्यार करने वाले।
  • श्रीधर–वक्ष:स्थल में लक्ष्मी को धारण करने वाले।
  • प्रजापति–सम्पूर्ण जीवों के पालक।
  • गोपीकरावलम्बी–गोपियों के हाथ को पकड़कर नाचने वाले।
  • बलानुयायी–बलरामजी का अनुकरण करने वाले।
  • श्रीदामप्रिय–श्रीदामा के प्रिय सखा।
  • अप्रमेयात्मा–जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरूप से युक्त।
  • गोपात्मा–गोपस्वरूप।
  • हेममाली–सुवर्णमालाधारी।
  • आजानुबाहु–घुटने तक लंबी भुजा वाले।
  • कोटिकन्दर्पलावण्य–करोड़ों कामदेवों के समान सौन्दर्यशाली।
  • क्रूर–दुष्टों को दण्ड देने के लिए कठोर।
  • व्रजानन्दी–अपने शुभागमन से सम्पूर्ण व्रज का आनन्द बढ़ाने वाले।
  • व्रजेश्वर–व्रज के स्वामी।
जीवन की जटिलताओं में फंसे, हारे-थके, आत्म-विस्मृत सम्पूर्ण प्राणियों के लिए आज के जीवन में भगवन्नाम ही एकमात्र तप है, एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है। इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है। इसके प्रत्येक श्वास का बड़ा मोल है। अत: उसका पूरा सदुपयोग करना चाहिए–
साँस-साँस पर कृष्ण भज, वृथा साँस मत खोय।
ना जाने या साँस को आवन होय, न होय।।

शनिवार, 18 मार्च 2017

भगवत गीता

भागवत गीता की सही होती बातें​ 

गीता  में लिखी ये 10 भयंकर बातें कलयुग में हो रही हैं सच,...​ 
 
1.ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥
 
इस श्लोक का अर्थ है कि ​कलयुग में धर्म, स्वच्छता, सत्यवादिता, स्मृति, शारीरक शक्ति, दया भाव और जीवन की अवधि दिन-ब-दिन घटती जाएगी.
 


2.वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥
 
इस गीता के श्लोक का अर्थ है की ​कलयुग में वही व्यक्ति गुणी माना जायेगा जिसके पास ज्यादा धन है. न्याय और कानून सिर्फ एक शक्ति के आधार पे होगा !​   
 
3.  दाम्पत्येऽभिरुचि  र्हेतुः मायैव  व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे  पुंस्त्वे च हि रतिः विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥
 
इस श्लोक का अर्थ है कि ​कलयुग में स्त्री-पुरुष बिना विवाह के केवल रूचि के अनुसार ही रहेंगे.
व्यापार की सफलता के लिए मनुष्य छल करेगा और ब्राह्मण सिर्फ नाम के होंगे.
 


4. लिङ्‌गं एवाश्रमख्यातौ अन्योन्यापत्ति कारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः ॥ 
 
इस श्लोक का अर्थ है कि
घूस देने वाले व्यक्ति ही न्याय पा सकेंगे और जो धन नहीं खर्च पायेगा उसे न्याय के लिए दर-दर की ठोकरे खानी होंगी. स्वार्थी और चालाक लोगों को कलयुग में विद्वान माना जायेगा.
 


5. क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव संतप्स्यन्ते च चिन्तया ।
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम.
  
कलयुग में लोग कई तरह की चिंताओं में घिरे रहेंगे. लोगों को कई तरह की चिंताए सताएंगी और बाद में मनुष्य की उम्र घटकर सिर्फ 20-30 साल की रह जाएगी.


 
6. दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥
 
लोग दूर के नदी-तालाबों और पहाड़ों को तीर्थ स्थान की तरह जायेंगे लेकिन अपनी ही माता पिता का अनादर करेंगे. सर पे बड़े बाल रखना खूबसूरती मानी जाएगी और लोग पेट भरने के लिए हर तरह के बुरे काम करेंगे.
 


7. अनावृष्ट्या  विनङ्‌क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः । शीतवातातपप्रावृड् हिमैरन्योन्यतः  प्रजाः ॥ 
 
इस श्लोक का अर्थ है कि
कलयुग में बारिश नहीं पड़ेगी और हर जगह सूखा होगा.मौसम बहुत विचित्र अंदाज़ ले लेगा. कभी तो भीषण सर्दी होगी तो कभी असहनीय गर्मी. कभी आंधी तो कभी बाढ़ आएगी और इन्ही परिस्तिथियों से लोग परेशान रहेंगे.​ 


 
8. अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥ 
 
कलयुग में जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होगा उसे लोग अपवित्र, बेकार और अधर्मी मानेंगे. विवाह के नाम पे सिर्फ समझौता होगा और लोग स्नान को ही शरीर का शुद्धिकरण समझेंगे.
 


9. दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः आकीर्णे क्षितिमण्डले ॥ 
 
लोग सिर्फ दूसरो के सामने अच्छा दिखने के लिए धर्म-कर्म के काम करेंगे. कलयुग में दिखावा बहुत होगा और पृथ्वी पे भृष्ट लोग भारी मात्रा में होंगे. लोग सत्ता या शक्ति हासिल करने के लिए किसी को मारने से भी पीछे नहीं हटेंगे.
 


10. आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम् ।
शाकमूलामिषक्षौद्र फलपुष्पाष्टिभोजनाः ॥ 
 
पृथ्वी के लोग अत्यधिक कर और सूखे के वजह से घर छोड़ पहाड़ों पे रहने के लिए मजबूर हो जायेंगे. कलयुग में ऐसा वक़्त आएगा जब लोग पत्ते, मांस, फूल और जंगली शहद जैसी चीज़ें खाने को मजबूर होंगे.
    
गीता में श्री कृष्णा द्वारा लिखी ये बातें इस कलयुग में सच होती दिखाई दे रही है. आपसे अनुरोध है कि इस जानकारी को ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर कीजिये ताकि हर भारतीय को पता चले कि हिन्दू धर्म कितना पुराना है.
हमें गर्व है कि श्री कृष्ण जैसे अवतारों ने पृथ्वी पे आकर कलयुग की भविष्यवाणी इतनी पहले ही कर दी थी, लेकिन फिर भी आज का मनुष्य अभी तक कोई सबक नहीं ले पाया.
            ​ जय श्री कृष्ण

सोमवार, 6 मार्च 2017

मनु स्मृति- इन 15 लोगों के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए.....!!

मनु स्मृति-
इन 15 लोगों के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए.....!!
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🍃🍂श्लोक-
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ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः।।
मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।।-
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अथार्त-⬇
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1⃣ यज्ञ करने वाले,
2⃣ पुरोहित,
3⃣ आचार्य,
4⃣अतिथियों,
5⃣माता,
6⃣पिता,
7⃣मामा आदि संबंधियों,
8⃣भाई,
9⃣बहन,
  🔟 पुत्र,
1⃣1⃣पुत्री,
1⃣2⃣पत्नी,
1⃣3⃣पुत्रवधू,
1⃣4⃣दामाद तथा
1⃣5⃣गृह सेवकों यानी नौकरों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।
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1⃣. यज्ञ करने वाला
यज्ञ करने वाला ब्राह्मण सदैव सम्मान करने योग्य होता है। यदि उससे किसी प्रकार की कोई चूक हो जाए तो भी उसके साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो इससे आपकी प्रतिष्ठा ही धूमिल होगी। अतः यज्ञ करने वाले वाले ब्राह्मण से वाद-विवाद न करने में ही भलाई है।

2⃣. पुरोहित
यज्ञ, पूजन आदि धार्मिक कार्यों को संपन्न करने के लिए एक योग्य व विद्वान ब्राह्मण को नियुक्त किया जाता है, जिसे पुरोहित कहा जाता है। भूल कर भी कभी पुरोहित से विवाद नहीं करना चाहिए। पुरोहित के माध्यम से ही पूजन आदि शुभ कार्य संपन्न होते हैं, जिसका पुण्य यजमान (यज्ञ करवाने वाला) को प्राप्त होता है। पुरोहित से वाद-विवाद करने पर वह आपका काम बिगाड़ सकता है, जिसका दुष्परिणाम यजमान को भुगतना पड़ सकता है। इसलिए पुरोहित से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

3⃣. आचार्य
प्राचीनकाल में उपनयन संस्कार के बाद बच्चों को शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा जाता था, जहां आचार्य उन्हें पढ़ाते थे। वर्तमान में उन आचार्यों का स्थान स्कूल टीचर्स ने ले लिया है। मनु स्मृति के अनुसार आचार्य यानी स्कूल टीचर्स से भी कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। वह यदि दंड भी दें तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। आचार्य (टीचर्स) हमेशा अपने छात्रों का भला ही सोचते हैं। इनसे वाद-विवाद करने पर विद्यार्थी का भविष्य भी खतरे में पड़ सकता है।

4⃣. अतिथि
हिंदू धर्म में अतिथि यानी मेहमान को भगवान की संज्ञा दी गई है इसलिए कहा जाता है मेहमान भगवान के समान होता है। उसका आवभगत ठीक तरीके से करनी चाहिए। भूल से भी कभी अतिथि के साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। अगर कोई अनजान व्यक्ति भी भूले-भटके हमारे घर आ जाए तो उसे भी मेहमान ही समझना चाहिए और यथासंभव उसका सत्कार करना चाहिए। अतिथि से वाद-विवाद करने पर आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस लग सकती है।

5⃣. माता
माता ही शिशु की सबसे प्रथम शिक्षक होती है। माता 9 महीने शिशु को अपने गर्भ में धारण करती है और जीवन का प्रथम पाठ पढ़ाती है। यदि वृद्धावस्था या इसके अतिरिक्त भी कभी माता से कोई भूल-चूक हो जाए तो उसे प्यार से समझा देना चाहिए न कि उसके साथ वाद-विवाद करना चाहिए। माता का स्थान गुरु व भगवान से ही ऊपर माना गया है। इसलिए माता सदैव पूजनीय होती हैं। अतः माता के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

6⃣. पिता
पिता ही जन्म से लेकर युवावस्था तक हमारा पालन-पोषण करते हैं। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पिता के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। पिता भी माता के ही समान पूज्यनीय होते हैं। हम जब भी किसी मुसीबत में फंसते हैं, तो सबसे पहले पिता को ही याद करते हैं और पिता हमें उस समस्या का समाधान भी सूझाते हैं। वृद्धावस्था में भी पिता अपने अनुभव के आधार पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए पिता के साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

7⃣. मामा आदि संबंधी
मामा आदि संबंधी जैसे- काका-काकी, ताऊ-ताईजी, बुआ-फूफाजी, ये सभी वो लोग होते हैं, जो बचपन से ही हम पर स्नेह रखते हैं। बचपन में कभी न कभी ये भी हमारी जरूरतें पूरी करते हैं। इसलिए ये सभी सम्मान करने योग्य हैं। इनसे वाद-विवाद करने पर समाज में हमें सभ्य नहीं समझा जाएगा और हमारी प्रतिष्ठा को भी ठेस लग सकती है। इसलिए भूल कर भी कभी मामा आदि सगे-संबंधियों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति बने तो भी समझा-बूझाकर इस मामले को सुलझा लेना चाहिए।

8⃣. भाई
हिंदू धर्म के अनुसार बड़ा भाई पिता के समान तथा छोटा भाई पुत्र के समान होता है। बड़ा भाई सदैव मार्गदर्शक बन कर हमें सही रास्ते पर चलने के प्रेरित करता है और यदि भाई छोटा है तो उसकी गलतियां माफ कर देने में ही बड़प्पन है। विपत्ति आने पर भाई ही भाई की मदद करता है। बड़ा भाई अगर परिवार रूपी वटवृक्ष का तना है तो छोटा भाई उस वृक्ष की शाखाएं। इसलिए भाई छोटा हो या बड़ा उससे किसी भी प्रकार का वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

9⃣. बहन
भारतीय सभ्यता में बड़ी बहन को माता तथा छोटी बह न को पुत्री माना गया है। बड़ी बहन अपने छोटे भाई-बहनों को माता के समान ही स्नेह करती है। संकट के समय सही रास्ता बताती है। छोटे भाई-बहनों पर जब भी विपत्ति आती है, बड़ी बहन हर कदम पर उनका साथ देती है।
छोटी बहन पुत्री के समान होती है। परिवार में जब भी कोई शुभ प्रसंग आता है, छोटी बहन ही उसे खास बनाती है। छोटी बहन जब घर में होती है तो घर का वातावरण सुखमय हो जाता है। इसलिए मनु स्मृति में कहा गया है कि बहन के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

🔟. पुत्र
हिंदू धर्म ग्रंथों में पुत्र को पिता का स्वरूप माना गया है यानी पुत्र ही पिता के रूप में पुनः जन्म लेता है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र ही पिता को पुं नामक नरक से मुक्ति दिलाता है। इसलिए उसे पुत्र कहते हैं-
पुं नाम नरक त्रायेताति इति पुत्रः
पुत्र द्वारा पिंडदान, तर्पण आदि करने पर ही पिता की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। पुत्र यदि धर्म के मार्ग पर चलने वाला हो तो वृद्धावस्था में माता-पिता का सहारा बनता है और पूरे परिवार का मार्गदर्शन करता है। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पुत्र से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

1⃣1⃣. पुत्री
भारतीय संस्कृति में पुत्री को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। कहते हैं कि भगवान जिस पर प्रसन्न होता है, उसे ही पुत्री प्रदान करता है। संभव है कि पुत्र वृद्धावस्था में माता-पिता का पालन-पोषण न करे, लेकिन पुत्री सदैव अपने माता-पिता का साथ निभाती है। परिवार में होने वाले हर मांगलिक कार्यक्रम की रौनक पुत्रियों से ही होती है। विवाह के बाद भी पुत्री अपने माता-पिता के करीब ही होती है। इसलिए पुत्री से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

1⃣2⃣. पत्नी
हिंदू धर्म में पत्नी को अर्धांगिनी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पति के शरीर का आधा अंग। किसी भी शुभ कार्य व पूजन आदि में पत्नी का साथ में होना अनिवार्य माना गया है, उसके बिना पूजा अधूरी ही मानी जाती है। पत्नी ही हर सुख-दुख में पति का साथ निभाती है। वृद्धावस्था में यदि पुत्र आदि रिश्तेदार साथ न हो तो भी पत्नी कदम-कदम पर साथ चलती है। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पत्नी से भी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

1⃣3⃣. पुत्रवधू
पुत्र की पत्नी को पुत्रवधू कहते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार पुत्रवधू को भी पुत्री के समान ही समझना चाहिए। पुत्रियों के अभाव में पुत्रवधू से ही घर में रौनक रहती है। कुल की मान-मर्यादा भी पुत्रवधू के ही हाथों में होती है। परिवार के सदस्यों व अतिथियों की सेवा भी पुत्रवधू ही करती है। पुत्रवधू से ही वंश आगे बढ़ता है। इसलिए यदि पुत्रवधू से कभी कोई चूक भी हो जाए तो भी उसके साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

1⃣4⃣. गृह सेवक यानी नौकर
मनु स्मृति के अनुसार गृह सेवक यानी नौकर से भी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि पुराने सेवक आपकी व आपके परिवार की कई गुप्त बातें जानता है। वाद-विवाद करने पर वह गुप्त बातें सार्वजनिक कर सकता है। जिससे आपके परिवार की प्रतिष्ठा खराब हो सकती है। इसलिए नौकर से भी कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

1⃣5⃣. दामाद
पुत्री के पति को दामाद यानी जमाई कहते हैं। धर्म ग्रंथों में दामाद को भी पुत्र के समान माना गया है। पुत्र के न होने पर दामाद ही उससे संबंधित सभी जिम्मेदारी निभाता है तथा ससुर के उत्तर कार्य (पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध आदि) करने का अधिकारी भी होता है। दामाद से इसलिए भी विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका असर आपकी पुत्री के दांपत्य जीवन पर भी पढ़ सकता है।🚩🌹🚩🌹🚩🌹

रविवार, 24 अप्रैल 2016

महाभारत की 11 ऐसी कहानियां जिनके बारे में आपने शायद ही सुना होगा

आपको धार्मिक ग्रंथ महाभारत से जुड़ी अलग-अलग कई कहानियों के बारे में मालूम होगा, लेकिन इनमें कई ऐसी भी कहानियां हैं जिनके बारे में अाप शायद ही जानते हों. जानिए धार्मिक ग्रंथ  महाभारत से संबंधित ऐसी ही 11 कहानियों के बारे में:


1. जब कौरवों की सेना पांडवों से युद्ध हार रही थी तब दुर्योधन भीष्म पितामह के पास गया और उन्हें कहने लगा कि आप अपनी पूरी शक्ति से यह युद्ध नहीं लड़ रहे हैं. भीष्म पितामह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने तुरंत पांच सोने के तीर लिए और कुछ मंत्र पढ़े. मंत्र पढ़ने के बाद उन्होंने दुर्योधन से कहा कि कल इन पांच तीरों से वे पांडवों को मार देंगे. मगर दुर्योधन को भीष्म पितामह के ऊपर विश्वास नहीं हुआ और उसने तीर ले लिए और कहा कि वह कल सुबह इन तीरों को वापस करेगा. इन तीरों के पीछे की कहानी भी बहुत मजेदार है. भगवान कृष्ण को जब तीरों के बारे में पता चला तो उन्होंने अर्जुन को बुलाया और कहा कि तुम दुर्योधन के पास जाओ और पांचो तीर मांग लो.  दुर्योधन की जान तुमने एक बार गंधर्व से बचायी थी.  इसके बदले उसने कहा था कि कोई एक चीज जान बचाने के लिए मांग लो. समय आ गया है कि अभी तुम उन पांच सोने के तीर मांग लो. अर्जुन दुर्योधन के पास गया और उसने तीर मांगे. क्षत्रिय होने के नाते दुर्योधन ने अपने वचन को पूरा किया और तीर अर्जुन को दे दिए.
2. द्रोणाचार्य को भारत का पहले टेस्ट ट्यूब बेबी माना जा सकता है. यह कहानी भी काफी रोचक है. द्रोणाचार्य के पिता महर्षि भारद्वाज थे और उनकी माता एक अप्सरा थीं. दरअसल, एक शाम भारद्वाज शाम में गंगा नहाने गए तभी उन्हें वहां एक अप्सरा नहाती हुई दिखाई दी. उसकी सुंदरता को देख ऋषि मंत्र मुग्ध हो गए और उनके शरीर से शुक्राणु निकला जिसे ऋषि ने एक मिट्टी के बर्तन में जमा करके अंधेरे में रख दिया. इसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ.
3. जब पांडवों के पिता पांडु मरने के करीब थे तो उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि बुद्धिमान बनने और ज्ञान हासिल करने के लिए वे उनका मस्तिष्क खा जाएं. केवल सहदेव ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके मस्तिष्क को खा लिया. पहली बार खाने पर उसे दुनिया में हो चुकी चीजों के बारे में जानकारी मिली. दूसरी बार खाने पर उसने वर्तमान में घट रही चीजों के बारे में जाना और तीसरी बार खाने पर उसे भविष्य में क्या होनेवाला है, इसकी जानकारी मिली.
4. अभिमन्यु की पत्नी वत्सला बलराम की बेटी थी. बलराम चाहते थे कि वत्सला की शादी दुर्योधन के बेटे लक्ष्मण से हो. वत्सला और अभिमन्यु एक-दूसरे से प्यार करते थे. अभिमन्यु ने वत्सला को पाने के लिए घटोत्कच की मदद ली. घटोत्कच ने लक्ष्मण को इतना डराया कि उसने कसम खा ली कि वह पूरी जिंदगी शादी नहीं करेगा.
5. अर्जुन के बेटे इरावन ने अपने पिता की जीत के लिए खुद की बलि दी थी. बलि देने से पहले उसकी अंतमि इच्छा थी कि वह मरने से पहले शादी कर ले. मगर इस शादी के लिए कोई भी लड़की तैयार नहीं थी क्योंकि शादी के तुरंत बाद उसके पति को मरना था. इस स्थिति में भगवान कृष्ण ने मोहिनी का रूप लिया और इरावन से न केवल शादी की बल्कि एक पत्नी की तरह उसे विदा करते हुए रोए भी.
6. सहदेव, जो अपने पिता का मस्तिष्क खाकर बुद्धिमान बना था. उसमें भविष्य देखने की क्षमता थी इसलिए दुर्योधन उसके पास गया और युद्ध शुरू करने से पहले उससे सही मुहूर्त के बारे में पूछा. सहदेव यह जानता था कि दुर्योधन उसका सबसे बड़ा शत्रु है फिर भी उसने युद्ध शुरू करने का सही समय बताया.
7. धृतराष्ट्र का एक बेटा युयत्सु नाम का भी था. युयत्सु एक वैश्य महिला का बेटा था. दरअसल, धृतराष्ट्र के संबंध एक दासी के साथ थे जिससे युयत्सु पैदा हुआ था.
8. महाभारत के युद्ध में उडुपी के राजा ने निरपेक्ष रहने का फैसला किया था. उडुपी का राजा न तो पांडव की तरफ से थे और न ही कौरव की तरफ से. उडुपी के राजा ने कृष्ण से कहा था कि कौरवों और पांडवों की इतनी बड़ी सेना को भोजन की जरूरत होगी और हम दोनों तरफ की सेनाओं को भोजन बनाकर खिलाएंगें. 18 दिन तक चलने वाले इस युद्ध में कभी भी खाना कम नहीं पड़ा. सेना ने जब राजा से इस बारे में पूछा तो उन्होंने इसका श्रेय कृष्ण को दिया. राजा ने कहा  कि जब कृष्ण भोजन करते हैं तो उनके आहार से उन्हें पता चल जाता है कि कल कितने लोग मरने वाले हैं और खाना इसी हिसाब से बनाया जाता है.
9. जब दुर्योधन कुरूक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस से ले रहा था, उस समय उसने अपनी तीन उंगलियां उठा रखी थी. भगवान कृष्ण उसके पास गए और समझ गए कि दुर्योधन कहना चाहता है कि अगर वह तीन गलतियां युद्ध में ना करता तो युद्ध जीत लेता. मगर कृष्ण ने दुर्योधन को कहा कि अगर तुम कुछ भी कर लेते तब भी हार जाते. ऐसा सुनने के बाद दुर्योधन ने अपनी उंगली नीचे कर ली.
10. कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती के किस्से तो काफी मशहूर हैं. कर्ण और दुर्योधन की पत्नी दोनों एक बार शतरंज खेल रहे थे. इस खेल में कर्ण जीत रहा था तभी भानुमति ने दुर्योधन को आते देखा और खड़े होने की कोशिश की. दुर्योधन के आने के बारे में कर्ण को पता नहीं था. इसलिए जैसे ही भानुमति ने उठने की कोशिश की कर्ण ने उसे पकड़ना चाहा. भानुमति के बदले उसके मोतियों की माला उसके हाथ में आ गई और वह टूट गई. दुर्योधन तब तक कमरे में आ चुका था. दुर्योधन को देख कर भानुमति और कर्ण दोनों डर गए कि दुर्योधन को कहीं कुछ गलत शक ना हो जाए. मगर दुर्योधन को कर्ण पर काफी विश्वास था. उसने सिर्फ इतना कहा कि मोतियों को उठा लें.
11. कर्ण दान करने के लिए काफी प्रसिद्ध था. कर्ण जब युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस ले रहा था तो भगवान कृष्ण ने उसकी दानशीलता की परीक्षा लेनी चाही. वे गरीब ब्राह्मण बनकर कर्ण के पास गए और कहा कि तुम्हारे बारे में काफी सुना है और तुमसे मुझे अभी कुछ उपहार चाहिए. कर्ण ने उत्तर में कहा कि आप जो भी चाहें मांग लें. ब्राह्मण ने सोना मांगा. कर्ण ने कहा कि सोना तो उसके दांत में है और आप इसे ले सकते हैं. ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं इतना कायर नहीं हूं कि तुम्हारे  दांत तोड़ूं. कर्ण ने तब एक पत्थर उठाया और अपने दांत तोड़ लिए. ब्राह्मण ने इसे भी लेने से इंकार करते हुए कहा कि खून से सना हुआ यह सोना वह नहीं ले सकता. कर्ण ने इसके बाद एक बाण उठाया और आसमान की तरफ चलाया. इसके बाद बारिश होने लगी और दांत धुल गया.

http://aajtak.intoday.in

बुधवार, 6 मई 2015

16 पौराणिक कथाएं - पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की

हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथो वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कई ऐसे पात्रों का वर्णन है जिनका जन्म बिना माँ के गर्भ और पिता के वीर्य के हुआ था। यहां हम आपको कुछ ऐसे ही पौराणिक पात्रो क़े ज़न्म की 16  कहानी बतायेँगे। इनमे से कई पात्रो के ज़न्म मे माँ के गर्भ का कोई योगदान नहीं था तो कुछ पात्रों के ज़न्म में पिता क़े वीर्य का जबकि कुछ मैं दोनो क़ा हीं।


Child in mother womb
माँ के गर्भ में बच्चा  

1. धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्म कि कथा :

हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।


राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। तब  उन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्र वेदव्यास का स्मरण किया।स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम नियोग विधि से उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वो मेरे सामने से निवस्त्र हॉकर गुजरें जिससे की उनको गर्भ धारण होगा।"  सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी छोटी रानी अम्बालिका गई पर अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से  पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा " ।  यह जानकार इससे माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी।   इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

2. कौरवों के जन्म की कथा :


एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।

महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

3. पांडवों के जन्म की कथा : 

पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, "राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।"

इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"

ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?" कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

4. कर्ण के जन्म की कथा :

कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।

5. राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन के जन्म की कथा :

दशरथ अधेड़ उम्र तक पहुँच गये थे लेकिन उनका वंश सम्हालने के लिए उनका पुत्र रूपी कोई वंशज नहीं था। उन्होंने पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का विचार किया। उनके एक मंत्री सुमन्त्र ने उन्हें सलाह दी कि वह यह यज्ञ अपने दामाद ऋष्यशृंग या साधारण की बोलचाल में शृंगि ऋषि से करवायें। दशरथ के कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। वह उनके धर्म गुरु भी थे तथा धार्मिक मंत्री भी। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्म गुरु को ही था। अतः वशिष्ठ की आज्ञा लेकर दशरथ ने शृंगि ऋषि को यज्ञ की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया।
शृंगि ऋषि ने दोनों यज्ञ भलि भांति पूर्ण करवाये तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ के दौरान यज्ञ वेदि से एक आलौकिक यज्ञ पुरुष या प्रजापत्य पुरुष उत्पन्न हुआ तथा दशरथ को स्वर्णपात्र में नैवेद्य का प्रसाद प्रदान करके यह कहा कि अपनी पत्नियों को यह प्रसाद खिला कर वह पुत्र प्राप्ति कर सकते हैं। दशरथ इस बात से अति प्रसन्न हुये और उन्होंने अपनी पट्टरानी कौशल्या को उस प्रसाद का आधा भाग खिला दिया। बचे हुये भाग का आधा भाग (एक चौथाई) दशरथ ने अपनी दूसरी रानी सुमित्रा को दिया। उसके बचे हुये भाग का आधा हिस्सा (एक बटा आठवाँ) उन्होंने कैकेयी को दिया। कुछ सोचकर उन्होंने बचा हुआ आठवाँ भाग भी सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने पहला भाग भी यह जानकर नहीं खाया था कि जब तक राजा दशरथ कैकेयी को उसका हिस्सा नहीं दे देते तब तक वह अपना हिस्सा नहीं खायेगी। अब कैकेयी ने अपना हिस्सा पहले खा लिया और तत्पश्चात् सुमित्रा ने अपना हिस्सा खाया। इसी कारण राम (कौशल्या से), भरत (कैकेयी से) तथा लक्ष्मण व शत्रुघ्न (सुमित्रा से) का जन्म हुआ। 

6. पवन पुत्र हनुमान के जन्म कि कथा : 

पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।

अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

7. हनुमान पुत्र मकरध्वज के ज़न्म की कथा :

हनुमान वैसे तो ब्रह्मचारी थे फिर भी वो एक पुत्र के पिता बने थे हालांकि यह पुत्र वीर्य कि जगाह पसीनें कि बूंद से हुआ था। कथा कुछ इस प्रकार है जब हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया। तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी। जलती हुई पूंछ की वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे। उस समय उनके पसीने की एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम पड़ा मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वार पाल नियुक्त किया गया था। जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

8. द्रोणाचार्य के जन्म की कथा : 

द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- एक समय गंगा द्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञ पात्र (यज्ञ के लिए उपयोग किया जाने वाला एक प्रकार का बर्तन) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था।


9. ऋषि ऋष्यश्रृंग के जन्म की कथा : 

ऋषि ऋष्यश्रृंग महात्मा काश्यप (विभाण्डक) के पुत्र थे। महात्मा काश्यप बहुत ही प्रतापी ऋषि थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्त:करण शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर में पर स्नान करने गए। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को जल के साथ एक हिरणी ने पी लिया, जिससे उसे गर्भ रह गया। वास्तव में वह हिरणी एक देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी उसे श्राप दिया था कि तू हिरण जाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को जन्म देगी, तब श्राप से मुक्त हो जाएगी।

इसी श्राप के कारण महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े तपोनिष्ठ थे। उनके सिर पर एक सींग था, इसीलिए उनका नाम ऋष्यश्रृंग प्रसिद्ध हुआ। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था। इस यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ था।

10. कृपाचार्य व कृपी के जन्म की कथा : 

कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। उसके अनुसार- महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन उनके मन में विकार आ गया था। इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। वे धनुष, बाण, आश्रम और उस सुंदरी को छोड़कर तुरंत वहां से चल गए।

​उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। कृपाचार्य की योग्यता देखते हुए उन्हें कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त किया गया।

11. द्रौपदी व धृष्टद्युम्न के जन्म की कथा : 

द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। राजा बनने के बाद द्रुपद को अंहकार हो गया। जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद को अपना मित्र समझकर उनसे मिलने गए तो द्रुपद ने उनका बहुत अपमान किया। बाद में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के माध्यम से द्रुपद को पराजित कर अपने अपमान का बदला लिया। राजा द्रुपद अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे था इसलिए उन्होंने ऐसा यज्ञ करने का निर्णय लिया, जिसमें से द्रोणाचार्य का वध करने वाला वीर पुत्र उत्पन्न हो सके। राजा द्रुपद इस यज्ञ को करवाले के लिए कई विद्वान ऋषियों के पास गए, लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की।

अंत में महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।

12. राधा के जन्म की कथा : 

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक बार गोलोक में किसी बात पर राधा और श्रीदामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। श्रीकृष्ण के कहने पर ही राधा व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं।

13. राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा :

रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। दीर्घकाल तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे। तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा।

कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरक्षित रखा। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया।

देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोली राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।

14. जनक नंदिनी सीता के जन्म की कहानी : 

भगवान श्रीराम की पत्नी सीता का जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। रामायण के अनुसार उनका जन्म भूमि से हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में राजा जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं कि-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा।

अर्थात्- एक दिन मैं यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्र भाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई।


15. मनु व शतरूपा के जन्म की कहानी : 

धर्म ग्रंथों के अनुसार मनु व शतरूपा सृष्टि के प्रथम मानव माने जाते हैं। इन्हीं से मानव जाति का आरंभ हुआ। मनु का जन्म भगवान ब्रह्मा के मन से हुआ माना जाता है। मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक और समस्त मानव जाति के आदि पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें 'आदि पुरूष' भी कहा गया है। वैदिक संहिताओं में भी मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव थे जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं। मनु का विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।

मनु एक धर्म शास्त्रकार भी थे। धर्मग्रंथों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत 'स्वायंभुव शास्त्र' के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था।

16. राजा पृथु के जन्म की कथा :

पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। स्वयंभुव मनु के वंशज राजा अंग का विवाह सुनिथा नामक स्त्री से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। वह पूरी धरती का एकमात्र राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। तब ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला, लेकिन सुनिथा ने अपने पुत्र का शव संभाल कर रखा। राजा के अभाव में पृथ्वी पर पाप कर्म बढऩे लगे। तब ब्राह्मणों ने मृत राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम पृथु तथा स्त्री का नाम अर्चि हुआ। अर्चि पृथु की पत्नी हुई। पृथु पूरी धरती के एकमात्र राजा हुए। पृथु ने ही उबड़-खाबड़ धरती को जोतने योग्य बनाया। नदियों, पर्वतों, झरनों आदि का निर्माण किया। राजा पृथु के नाम से ही इस धरा का नाम पृथ्वी पड़ा।