शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

अपनी गृहस्थी को सुखी और सफल कैसे बनाएं? सीखें ये सूत्र...



पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।

पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें देवी के समान सम्मान और गौरव प्रदान करते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रत की बात हर कहीं की जाती है, उसी प्रकार पत्नी व्रत भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। जबकि गहराई से सोचें तो यही बात जाहिर होती है कि पत्नी के लिये पति व्रत का पालन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा आवश्यक है पति का पत्नी व्रत का पालन करना। दोनों का महत्व समान है। कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से भी दोनों से एक समान ही हैं।

जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री  पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।

देखिए भगवान राम ने कैसे सीता से अपने विवाह के साथ ही सफल दाम्पत्य की नींव रखी। सीता को भगवान राम ने विवाह के बाद सबसे पहला उपहार क्या दिया। राम ने सीता को वचन दिया कि जिस तरह से दूसरे राजा कई रानियां रखते हैं, कई विवाह करते हैं, वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। हमेशा सीता के प्रति ही निष्ठा रखेंगे। विवाह के पहले ही दिन एक दिव्य विचार आया। रिश्ते में भरोसे और आस्था का संचार हो गया। सफल गृहस्थी की नींव पड़ गई। राम ने अपना यह वचन निभाया भी। सीता को ही सारे अधिकार प्राप्त थे। राम ने उन्हें कभी कमतर नहीं आंका।


सिर्फ इस एक कारण से बिगड़ते हैं पति--पत्नी के रिश्ते




अक्सर पति-पत्नी के रिश्ते में तनाव की एक बारीक सी डोर भी होती है। इसमें थोड़ा भी खिंचाव आने पर रिश्ते तन जाते हैं। ज्यादा दबाव दिया जाए तो टूट भी जाते हैं। ये डोर होती है अपेक्षा की। हम एक-दूसरे से जब रिश्ता जोड़ते हैं तो अपनी अपनेक्षाएं भी उसके साथ चिपका देते हैं। रिश्ता कोई भी हो हम उसमें कभी नि:स्वार्थ नहीं रह पाते हैं। हमारा कोई भी रिश्ता निष्काम नहीं होता।

यह अपेक्षा ही तनाव और बिखराव का कारण बनती है। अपनों से की गई अपेक्षा तो और उपद्रव खड़े करती है। अपनों से अपेक्षा पूरी हो जाए तो शांति नहीं मिलती लेकिन यदि पूरी हो तो अशांति जरूर ज्यादा हो जाती है। इसीलिए पति-पत्नी और रिश्तेदारों के बीच के संबंध हमेशा खटपट वाले बने रहते हैं क्योंकि हमने इनका आधार अपेक्षा बना लिया है।

हम अपने भीतर पसंद, नापसंद का एक ऐसा आरक्षण कर लेते हैं कि जिसके कारण हम लोगों की अच्छाइयों से वंचित हो जाते हैं। हम जितना दूसरों की अच्छाइयों के निकट जाएंगे उतना ही अपने भीतर शांति पाएंगे।

भागवत सिखाती है कि कैसे दाम्पत्य में अपेक्षा रहीत होकर ज्यादा सुखी रहा जा सकता है। भगवान कृष्ण की प्रमुख आठ पटरानियों में रुक्मिणी और सत्यभामा को देखिए। रुक्मिणी भगवान से निर्मल स्नेह और प्रेम रखती थीं। उन्हें भगवान का जितना साथ मिल जाए, उसी में सौभाग्य मानकर संतुष्टि मानती थी लेकिन इसके विपरीत सत्यभामा अक्सर भगवान से यह अपेक्षा रखती थीं कि वे ज्यादा से ज्यादा उनके पास रहें।

हर जन्म में उन्हीं के साथ रहें। इस लालच में उन्होंने एक बार नारद की बातों में आकर भगवान को ही दान कर दिया। बहुत पीड़ा झेली, सौतनों की उलाहना भी सही। आपके दाम्पत्य में संतुष्टि का भाव होना चाहिए। जितनी ज्यादा अपेक्षा रखेंगे, उतनी ज्यादा परेशानी और अशांति आपको ही झेलनी पड़ेगी।

पति-पत्नी का रिश्ता टूट सकता है अगर उसमें ये बात ना हो....

रामचरित मानस के बालकांड में शिव और सती का एक प्रसंग है। शिव और सती, अगस्त ऋषि के आश्रम में रामकथा सुनने गए। अगस्त शिव के शिष्य भी हैं। राम, शिव के आराध्य देव।  सती को यह थोड़ा अजीब लगा। कथा में ध्यान नहीं रहा, पूरे समय सोचने में बिता दिया कि शिव जो तीनों लोकों के स्वामी माने जाते हैं वे राम की कथा सुनने के लिए आए हैं। कथा समाप्त हुई और शिव-सती लौटने लगे। उस समय रावण ने सीता का हरण किया था और राम सीता के वियोग में दु:खी जंगलों में घूम रहे थे।

सती को आश्चर्य हुआ। जिसे शिव अपना आराध्य कहते हैं, वो एक स्त्री के वियोग में साधारण इंसान की तरह रो रहा है। सती ने शिव के सामने ये बात रखी तो शिव ने समझाया कि ये तो सब उनकी लीला है। भ्रम में मत पड़ो। लेकिन सती नहीं मानी। उन्होंने राम की परीक्षा लेनी चाही। शिव ने रोका, लेकिन सती पर कोई असर नहीं हुआ। वे सीता का रूप धर कर राम के सामने जा पहुंची।

राम ने सती को पहचान लिया और पूछा हे माता आप अकेली इस घने जंगल में क्या कर रही हैं? शिवजी कहां हैं? सती एकदम डर गई और चुपचाप शिव के पास लौट आई। शिव ने पूछा तो वे कुछ जवाब ना दे सकीं। लेकिन शिव ने सब देख लिया कि सती ने सीता का रूप बनाया था। जिन राम को वे अपना आराध्य देव मानते हैं, उनकी पत्नी का रूप सती ने बना लिया था। शिव ने मन ही मन सती का त्याग कर दिया। सती भी ये बात समझ गई और दक्ष के यज्ञ में जाकर आत्मदाह कर लिया।

ये प्रसंग बताता है कि पति-पत्नी में अगर थोड़ा भी अविश्वास हो तो रिश्ता खत्म होने की कगार पर भी पहुंच जाता है। कई बार पत्नियां, पति की और पति, पत्नी की बात पर विश्वास नहीं करते। नतीजा रिश्ते में बिखराव जाता है।

गृहस्थी को सुख से चलाना है तो पति-पत्नी को एक-दूसरे की आस्था और निष्ठा पर भरोसा करना पड़ेगा। अविश्वास तनाव पैदा करता है, तनाव से दुराव का प्रवेश होता है। अपने रिश्तों को टूटने से बचाना है तो एक-दूसरे पर भरोसा करें। अन्यथा इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।